पुस्तक समीक्षा – भारतवंशी भाषा एवं संस्कृति : डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी
डॉ. विवेक मणि त्रिपाठी
असिस्टेंट प्रोफेसर (भारत अध्ययन )
क्वान्ग्तोंग विदेशी भाषा विश्वविद्यालय , चीन
प्रोफेसर पुष्पिता अवस्थी भारत से सुदूर देशों में हिंदी साहित्य एवं संस्कृति की उद्घोषिका एवं संरक्षिका है I ये प्रवासी भारतवंशियों के मनोगत भावों की मुखर प्रवक्ता हैं I नूतन साहित्यिक सांस्कृतिक एवं भाषाई परिवेश में यदि इन्हें प्राचीन वैदिक ऋषिका का संपूर्ण कलाओं से युक्त अवतार कहा जाए तो शायद यह अतिउक्ति नहीं होगी I ये बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी तथा तथा बहुविध कृतित्व से भूषित है I इन्हें अपने देश तथा विदेशों में ख्यातिलब्ध ,विचारशील , अध्यापक, संपादक, प्रोफेसर एवं डिप्लोमेट के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है I
ये एक साथ कालजयी कवयित्री , संस्कृतिधर्मी, भाषाकर्मी लेखिका एवं हिंदी भाषा भाषियों के मन मस्तिष्क की अघोषित साम्राज्ञी हैं I ये उच्च कोटि की सर्जना शक्ति एवं यायावर प्रवृत्ति की स्वामिनी हैं, इनकी साहित्यिक रचनाएं बहुजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय की भावना से ओतप्रोत है, भूले , बिखरे,बिसरे एवं हासिये पर अवस्थित भारतवंशियों को अपने मूल संस्कृति एवं भाषा साहित्य से जोड़ने हेतु इन्होंने जो अथक परिश्रम किया है वह सर्वथा वंदनीय तथा प्रशंसनीय है I इन्होंने अपने विचारों तथा लेखन द्वारा यह संदेशित किया है कि सुदूर देशों में रहने वाले भारतवंशी भी हमारी विशाल भारतीय सांस्कृतिक विरासत के अंग है I डॉ. पुष्पिता अवस्थी जी के सदलेखन द्वारा विपरीत परिवेश एवं बेबसी में उत्पीड़ित पराधीन भारतवंशियों की अथक गाथा साहित्य के रूप में उजागर हुई है I
इन्हीं के सद्प्रयास से वर्ष 2003 में सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन का सफल आयोजन सूरीनाम में संभव हो पाया, जिसकी अनुगूंज इनकी उत्कृष्ट रचना भारतवंशी – भाषा एवं संस्कृति में सुनाई पड़ती है I इनकी यह रचना निर्बल एवं साधन विहीन समझे जाने वाले विवश एवं पराधीन भारतवंशियों की सांस्कृतिक एवं भाषाई जिजीविषा की अकथ गाथा है जिसे भुलाया नहीं जा सकता I “भारतवंशी ” उन भारतीयों एवं उनके वंशजों की संपूर्ण गाथा है जो 18 वीं शताब्दी में हृदय पर पत्थर रखकर भारी मन से सुखमय जीवन की चाह में मातृ- भू भारतभूमि का त्याग करने हेतु विवश हुए I विविध विभीषिकाओं से त्रस्त, परिश्रम के बावजूद भी अपनी आवश्यक आवश्यकता की पूर्ति में अक्षम इन भारतीयों की गाथा अत्यधिक कारुणिक है I विदेशी शासकों द्वारा इन्हें जहाजों में बोरियों की तरह भर भर कर मॉरीशस, सूरीनाम त्रिनिदाद एवं दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में बंधुआ मजदूर के रुप में भेजा गया I
उष्णकटिबंधीय भूमध्य रेखीय मॉनसून प्रदेश में स्थित इन देशों में धरती नित्य दोपहर तक तीव्र धूप एवं ताप से परितप्त होती रहती है तथा उसके बाद दिन के तीसरे पहर में मूसलाधार बारिश से सकून की अनुभूति कराती है I यहां की 90% से अधिक भूमि जंगलों से आच्छादित तथा दलदली है I यहां के जंगलों को काटकर भूमि को कृषि योग्य बनाना तथा उसको खेती करना भारतवंशियों के अथक श्रम से ही संभव हो पाया है I
कम पढ़े लिखे गवार समझे जाने वाले इन भारतीयों के समक्ष गरीबी एवं बेबसी के अतिरिक्त जो सबसे बड़ी समस्या थी वह यह कि अपने विदेशी आकाओं की ज्यादतियों को सहते हुए अपनी सांस्कृतिक धार्मिक तथा भाषाई पहचान को कैसे अक्षुण्य बनाये रखा जाए I इस दृष्टि से इनकी अकथनीय गाथा अत्यंत मर्मस्पर्शी है I अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु सतत संघर्षशील भारतवंशियों के समक्ष अपनी भाषा एवं संस्कृति की रक्षा की समस्या थी I भारतीय किसान मजदूर जब भारत से मॉरीशस त्रिनिदाद दक्षिण अफ्रीका गुयाना सूरीनाम फ़िजी आदि देशों में पहुंचते हैं तो तो कस्टम की चेकिंग में इन भारतीय किसानों मजदूरों के पोटलियों में से फटी पुरानी रामचरितमानस, हनुमान चालीसा, गीता, निर्गुण, देवी देवताओं की स्तुतियाँ , लोकगीत, कजरी ,भाग, बिरहा ,चैती आदि गीतों की पुस्तकें मिलती थी I
इन्हीं पुस्तकों ने सुदूर अफ्रीका में भारतवंशीयों के लिए संजीवनी सिद्ध हुआ तथा भारतीय संस्कृति को जिवंत बनाने में सहयोगी सिद्ध हुआ I डॉ. पुष्पिता अवस्थी जी ने अपनी श्रेष्ठतम रचना भारतवंशी – भाषा एवं संस्कृति के माध्यम से अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जूझते अपने अस्तित्व रक्षा के लिए जूझते संघर्षरत भारतवंशियों की जिस जिस विषय का वर्णन किया है वहीं की चमत्कृत लेखन शैली का चरम विलास हैI
उपनिवेशवाद विस्थापन तथा शोषण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रची गई यह पुस्तक भारतवंशियों के लिए बहुमूल्य धरोहर से कमतर नहीं है I डॉ. पुष्पिता अवस्थी जी ने इस ग्रंथ में भारतवंशियों की समस्याओं का अवलोकन अत्यंत सहानुभूति पूर्ण ह्रदय से किया है I भारतवंशियों की वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ आगामी पीढ़ियों के लिए भी यह ग्रन्थ प्रेरणादायक बना रहेगा I मनोभाव के प्रकटीकरण एवं पुनरावलोकन में भी इनकी दृष्टि खूब ही रमी है I इस ग्रंथ में वस्तु विषय का तथ्य पूर्ण सर्वांग विश्लेषण अत्यंत मनमोहक है I I
डॉ. पुष्पिता जी द्वारा दर्शित तथा रचित भारतवंशी नामक इस ग्रंथ के प्रारंभ में बीजक के रूप में भूमिका तथा अंत में परिशिष्ट के मध्य निम्न तीन खंडों में विषय वस्तु का सन्निवेश किया गया है –
भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में हिंदी संस्कृति
संस्कृति का संस्मरणात्मक सरोवर, एवं
भारतवंशी – भाषा साहित्य एवं पत्रकारिता
इस ग्रंथ में वास्तु विषय का सारगर्भित अवलोकन अत्यंत चारुता युक्त तथा मर्मस्पर्शी है I लेखिका की विद्वतापूर्ण लेखन शैली गरिमामयी है I वस्तु विन्यास एवं तथ्यपूर्ण कथन की अपूर्व शैली भी महिमामंडित है I भाषा की भाव प्रवीणता हो या सहज शब्दों की सुबोध सुगम्यता , सुरम्य अलंकारों की सुन्दर छवि हो या माधुर्यादिगुणों की सरस अभिव्यक्ति , शब्द सामर्थ्य की ऊंची उड़ान या भावों की भव्यता, सर्वत्र लेखिका की दृष्टि शोध पूर्ण औत्सुक्य से युक्त रही है I भारतवंशी में प्रदर्शित सहज भाव भंगिमा लेखिका के अद्भुत लेखन चातुर्य की सहज अभिव्यक्ति है I
डॉ. पुष्पिता जी के रसप्लावित हृदय से निःसरित निर्झरी सहृदय पाठकों को आनन्द –विभोर करने वाली है I भारतवंशी के अवगाहन में आमग्न पाठक इस ग्रंथ के संपूर्ण परायण के बिना विश्रांति की प्राप्ति कर ही नहीं सकता, ऐसा मेरा स्पष्ट सुविचरित अभिमत है I वस्तुतः यह ग्रंथ सत्यम शिवम सुंदरम का मंजूल समन्वय है I डॉ. पुष्पिता जी के इस पुस्तक के माध्यम से भारतीय संस्कृति की वैश्विकता को पुनर्भाषित करने का सफल एवं सार्थक प्रयास किया है जिससे भारतीय संस्कृति निश्चित रूप से समृद्ध होगी I